غَنيتُ رَغمَ
تَمزُقِ الأحشاءِ |
وضحكتُ رُغمَ
تكاثُر الأرزاءِ | |
وشدوتُ شعراً صغتهُ
في مهجتي |
فبدا رقيقا رائع
الاجزاءِ | |
انا ان شدوتُ
بمحنةٍ ومصيبةٍ |
فلأنني ما عشتُ
للأهواءِ | |
ولان قلبي لم
يعد مترنحاً |
يُبدي الأسى مُتشوقاً
لعزاءِ | |
فدع البكاء
ليائسٍ متوجعٍ |
يجثو لكل رزيةٍ
وبلاءِ | |
وأشدو مع الشادين اغنية الفِدى |
والعزمِ والإقدام
والخُيلاءِ | |
لا تيأسن فيوم
نصرِكَ مُقبلٌ |
ولقد تراءى
فهو ليسَ بناءِ | |
وعلى ربوع
القدس تخفقُ رايةٌ |
من كل ناحيةِ
وكل لواءِ | |
… | ||
يأيها النصر
المرجى فجره |
قل لي متى
تزهو مع العلياءِ | |
لتعود ارض
العرب طاهرة الربى |
لشبابها للشيب
للأبناءِ | |
ولكل من هانت
عليه حياته |
من موكب
الابطال والشهداءِ | |
ولكل من ضحى لاجل بلاده |
من ثائر
ومناضل وفدائي | |
ولكل من نادى
باعلى صوته |
الله اكبر
موطن الاسراءِ | |
اني وهبتك
مهجتي وحشاشتي |
لتقوم مزهوا
على اشلائي | |
كي لا يضل
العار يؤرق جنبنا |
كي لا يعيش
مشرد بفضاءِ | |
كي لا تضل
القدس تغرق بالخنا |
وتضج بالأنذالِ
و اللقطاءِ | |
كي لا تمثل
فوق تربة احمد |
اقصوصة من
مجمع الدخلاءِ | |
كي لا يعيث
المجرمون بارضنا |
كي لا ترفرف
راية الأعداءِ | |
… | ||
غنيت يا ارض
العروبة غنوتي |
بالحب تعبق
والسنا المعطاءِ | |
لكن جرحا في
فؤادي لم يزل |
يؤذي الحشا
ويزيد من بلوائي | |
اشكو اليك
تفرقا في شملنا |
في حين كنا
نلتقي بأخاءِ | |
كنا نتيه على
الزمان وأهله |
بالعلم
والأخلاق بالآراءِ | |
وتفجرت منا
العلوم تفجر الينبوع |
بين الصخرة
الصماءِ | |
ما عاش في
ارضي شريد بائس |
كلا ولاعجت
بذي فحشاءِ | |
لو اننا سرنا
برأي واحد |
ما كان صنع
المستحيل بنائي | |
فتوحدوا و
الاصل يجمع شملكم |
فالقدس ترقب
وحدة الابناءِ | |
و توقدوا
كالنار تحرق غاصبا |
واسعوا الى
بذل الدما بسخاءِ | |
… | ||
قسماً بانا لن
نهاب وننحني |
للظلم للأوغاد
لللقطاءِ | |
يا أمة الإقدام
يا عربية |
هُزي عروش البغي
والجبناءِ | |
ولتدفعي ركب الفداء
بقوة |
وامحي وجود العار في
الارجاءِ | |
في ارض يافا
والخليل وقد سنا |
مسرى الرسول
ومرقد الشهداءِ | |
محسن الحيدري
12/4/1969